वो 11 साल का था और मैं 23 की थी, फिर हम दोनों में जो हुआ वो जानकर हैरान रह जाएंगे आप

बात बहुत पुरानी है। मैं 11 साल की थी और वो लगभग 23 का। हम उनके घर किराए पर थे।
 
My story
WhatsApp Group Join Now

My story: बात बहुत पुरानी है। मैं 11 साल की थी और वो लगभग 23 का। हम उनके घर किराए पर थे। किराएदार यानी हमारा और मकान मालिक यानी उनका मकान एक ही बाउंड्री के भीतर। कोई आए-जाए तो खड़खड़ से दोनों मकानों की खिड़कियां पट से आंखें खोल देतीं। कौन है?

किराए के घर के अलग दस्तूर होते हैं। तब वाकफियत नहीं थी। अजीबोगरीब हालातों में अपना घर छोड़ना पड़ा था। बड़ा-सा घर। हरा-भरा बागीचा। मॉर्डन ढंग की खिड़कियां। वहां सजा हुआ ड्राइंगरूम भी था

और 'बाहरी' मेहमानों के लिए बरामदा भी। किराए के घर में अपने घर की शिद्दत से याद आती। फिर मन लगने लगा। बच्ची थी। मकान मालिक का घर मेरा 'एक्सटेंडेड घर' बन गया। दीदियां मिलीं और 'भैया'।

उनके यहां बैंगन की सब्जी बहुत मजेदार बनाती। और कढ़ी, अनरसा भी। और मेरी मां का बनाया तो सबकुछ ही बेस्ट होता था। दोनों घरों से कभी कटोरियां आतीं। कभी थालियां जातीं। मेरे लिए सब नया था। बिजली गुल होना हमारे लिए दिवाली लेकर आता। दोनों घरों के लोग बाहर निकल आते। गप्पें होतीं। स्कूल-राजनीति-सीरियल।

हम भाई-बहन छोटे थे लेकिन राजनीति पर तब खुलकर बोलते। कभी अंताक्षरी होती तो मारपीट की नौबत आ जाती। किराए के घर में एक और चीज थी, जो मुझे बेहद पसंद थी। हमारे घर के पीछे हरसिंगार का पेड़। मेरे रूम की खिड़की उसी पेड़ के सामने खुलती। सुबह होती तो जमीन सफेद-नारंगी फूलों का कालीन बन जाती। मैं गजरा (बालों की वेणी) बनाने लगी। नहाऊं या न नहाऊं, लेकिन हर इतवार गजरा लगता।

गजरा निकालते हुए फूलों को बालों में मसोसकर पक्का कर लेती कि खुश्बू बनी रहे। पड़ोस (मकान मालिक के बेटे) के 'भैया' देखते. एक रोज पूछा- ये जो तुम गजरा लगाती हो, इस फूल को क्या बोलते हैं, पता है! मैंने कहा- हां, हरसिंगार। उधर से जवाब आया- हरसिंगार नहीं, इसे यौवनसिंगार कहते हैं। और फिर अजीब-सी हंसी!

मैं सहम गई। बच्ची थी लेकिन पता नहीं क्या हुआ कि फिर मैंने गजरा नहीं लगाया। किसी से इसका जिक्र भी नहीं किया। शायद मामूली बात थी। लेकिन यही शुरुआत थी। मेरा सुबह का स्कूल होता, भाई-दीदी दोपहर में जाते। मां भी दोपहर की शिफ्ट में थीं। घर पर ताला रहता।

मैं लौटती तो चाभी देने के लिए वही 'भैया' मिलते। मैंने ताला खोलना तो सीख लिया लेकिन गैस ऑन करना मुझे तब आता नहीं था। किचन के काम में इतनी कच्ची कि डालडा और घी में फर्क किए बिना डालडा डालकर दाल पी लेती। गैस पर खाना गर्म कर देने का प्रस्ताव आया। मैं राजी हो गई। 'भैया' आने लगे।

स्कूल से लौटती तो सिर्फ खाना गर्म कर देने के लिए वो इतने बेचैन दिखते कि इंजीनियरिंग के बाद यही जीवन का मकसद हो। गर्म खाने के लिए उस 'हां' ने मेरा बचपन तितर-बितर कर दिया। 'भैया' बैठने लगे। पहले मैं और वो अलग-अलग चेयर पर। फिर वो मेरी चेयर के पास फर्श पर कि सांस मुझतक आए। उनकी सांसें तेज रहतीं। अजीब लगता लेकिन कुछ समझ नहीं आता था। 

वो जमाना भी आज से काफी पीछे था। लगभग आदिम युग ही मान लें। फिर एक रोज वो मेरे गालों को सहलाने लगे। मैं डर भगाने की कोशिश में हंसते हुए सिर हिलाने लगी। ऐसे कि पकड़ाई में न आऊं। उन्होंने छोड़ दिया। फिर तो ये रोज की कोशिश होने लगी। उनकी तरफ से छूने और मेरी तरफ से बचने की।

उस रोज स्कूल में एक हादसा घटा। मेरी सीट पार्टनर की मौत। मैं लौटी। तेज बारिश हो रही थी। पूरा मोहल्ला अपने-अपने घरों में दुबका हुआ। सिवाय उस शख्स के। गेट की आवाज से वो आया। चाभी छीनते हुए ही जैसे मेरे घर का दरवाजा खोला। मैं चुपचाप थी। स्कूल में रोकर थकी हुई। डरी हुई भी।

दोस्तों ने कहा था- 'उसका भूत तेरे पास आएगा। तू उसकी सहेली थी।' बारिश वाला अंधेरा भूत के डर को बढ़ा रहा था। उन 'भैया' के आने से राहत ही हुई। मैं खाना खा रही थी कि वो अचानक सामने खड़ा हो गया। पैंट नीचे सरकी हुई। कौर हाथ से गिर गया। मैं चीख नहीं सकी। जमी हुई देखती रही। उसने पकड़ लिया। अरे, रो क्यों रही हो! मैं हूं न। मैं तब भी जमी रही।

अचानक क्या हुआ, याद नहीं। उस वक्त की कोई तफसील मेरे दिमाग में है ही नहीं। अचानक मैं जोर से चीखी। चीख थी या मिमियाहट- ये भी याद नहीं। इतना याद है कि वो 'भैया' तेजी से भागे। चप्पलें हमारे बरामदे में छोड़ते हुए। शाम को उनकी बहन हमारे यहां चप्पलें ढूंढते आई। मैंने किसी से भी कुछ नहीं बताया। लेकिन गैस जलाना सीख लिया।

बारिश में चाहे कितना अंधेरा हो, बिजली न हो, मैं दरवाजा भीतर से बंद रखने लगी। शाम के हंसी-ठट्ठे में मैं फिर कभी शामिल नहीं हुई। घरवाले मेरा बदला मिजाज देखते। मां ने उस 'भैया' का नाम लेते हुए पूछा- कुछ हुआ है क्या? पुतलियां मुझपर जमी हुईं, जैसे कह रही हों- आज सच मत बोलना। मेरी मां- दुनिया की सबसे उजली, सबसे मजबूत मां तबतक बहुत थक चुकी थीं। पहली बार मां से झूठ कहा। मां से सच ही बोलने वाली बेटी 'इस अकेले और ऐसे सैकड़ों मामलों में' फिर हरदम झूठ बोलती रही।