हरियाणा में BJP सरकार के लिए सियासी सकंट, जानिये क्या है अविश्वास प्रस्ताव की नियमावली ?
दो अविश्वास प्रस्तावों के मध्य 6 महीने का अंतराल होने बारे संविधान या विधानसभा नियमावली में उल्लेख नहीं -- एडवोकेट
सुप्रीम कोर्ट के कई निर्णयों अनुसार सदन के भीतर ही साबित हो सकता है सत्तारूढ़ सरकार का बहुमत या अल्पमत, राजभवन या सार्वजनिक स्थलों पर विधायकों की परेड से नहीं
अगर कांग्रेस और जजपा वास्तव में गंभीर, तो राज्यपाल को ज्ञापन देकर नायब सैनी सरकार को सदन में ताज़ा विश्वासमत हासिल करने का दिलाएं निर्देश, अगर राज्यपाल नहीं कहते तो अदालत का हस्तक्षेप भी संभव
चंडीगढ़ - हरियाणा में करीब दो माह पूर्व मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी के नेतृत्व में बनी भाजपा सरकार का समर्थन कर रहे तीन निर्दलीय विधायकों -- करनाल की नीलोखेड़ी सीट से धर्म पाल गोंदर, कैथल की पुण्डरी सीट से रणधीर सिंह गोलन और चरखी दादरी जिले की दादरी सीट से सोमबीर सांगवान ने मौजूदा सरकार से समर्थन वापिस ले लिया है और इस बाबत राज्यपाल को भी सूचित कर दिया है. उक्त तीनो निर्दलीय विधायक अब प्रदेश की प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस के साथ हो गये है.
इस सबके बीच कांग्रेस सहित प्रदेश के विपक्षी दलों के नेताओं द्वारा दावा किया जा रहा कि ताज़ा राजनीतिक घटनाक्रम के फलस्वरूप हरियाणा की भाजपा सरकार अल्पमत में आ गई है और प्रदेश में तत्काल राष्ट्रपति शासन लागू कर तुरन्त ताज़ा विधानसभा चुनाव करवाए जाने चाहिए.
बहरहाल, पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट के एडवोकेट और संवैधानिक मामलों के जानकार हेमंत कुमार का इस विषय पर कहना है कि क्या प्रदेश में सत्तारूढ़ सरकार बहुमत में है या फिर उसे समर्थन कर रहे कुछ विधायकों की समर्थन वापसी के फलस्वरूप अल्पमत में आ गई है, यह मात्र राजनीतिक बयानबाजी से नहीं तय हो सकता बल्कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा गत तीन दशकों में दिए गये अनेकों निर्णयों के अनुसार ऐसा अर्थात किसी सत्तासीन सरकार का बहुमत या अल्पमत में होना केवल सदन के भीतर ही साबित किया जा सकता है, राजभवन या अन्य सार्वजनिक स्थलों पर विधायकों की परेड कराकर नहीं.
हेमंत ने आगे बताया कि करीब दो माह पूर्व 12 मार्च को मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के अगले दिन 13 मार्च को ही हरियाणा विधानसभा के एक दिन के विशेष सत्र में नायब सिंह सैनी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने ध्वनिमत से सदन में विश्वास मत हासिल किया था. हालांकि उस समय सदन में मौजूद कांग्रेस पार्टी ने विश्वास प्रस्ताव पर वोटिंग (मत-विभाजन) की मांग की थी परन्तु स्पीकर ज्ञान चंद गुप्ता ने उस पर सहमति नहीं दी थी. पिछली मनोहर लाल सरकार में सत्ता में सहयोगी जजपा पार्टी हालांकि तब सदन से अनुपस्थित रही थी. बहरहाल, तब नायब सैनी सरकार को कुल 7 में से 6 निर्दलीय विधायकों सहित कुल 48 विधायकों का समर्थन हासिल था.
इसी बीच 13 मार्च की देर शाम पूर्व मुख्यमंत्री मनोहर लाल के विधायक पद के त्यागपत्र से और बाद में निर्दलीय विधायक रणजीत सिंह के विधायक पद के इस्तीफे से और अब ताज़ा तीन उपरोक्त निर्दलियों के नायब सैनी सरकार से समर्थन वापसी से भाजपा को समर्थन कर रहे विधायकों की संख्या पांच घटकर 43 हो गयी है. मनोहर लाल और रणजीत सिंह के त्यागपत्र के बाद विधानसभा की ताज़ा सदस्य संख्या 88 है अर्थात बहुमत का आंकड़ा 45 है. इस प्रकार भाजपा बहुमत के आंकड़े से दो कम है.
हेमंत का कहना है कि बेशक 88 सदस्यी मौजूदा हरियाणा विधानसभा में नायब सैनी सरकार को वर्तमान में समर्थन कर रहे कुल 43 विधायकों का आंकड़ा प्रथम द्रष्टया अल्पमत प्रतीत हो परन्तु क्या वह वास्तव में यह अल्पमत है,
वह सदन में मतदान के दौरान ही साबित हो सकता है क्योंकि सदन में अविश्वास प्रस्ताव या विश्वास मत दौरान हुई वोटिंग में पार्टी व्हिप जारी होने बावजूद एवं दल -बदल विरोधी कानून में सदन की सदस्यता से अयोग्यता का खतरा होने बावजूद विपक्षी दल के विधायक न केवल सदन से अनुपस्थित रह सकते हैं बल्कि अपनी पार्टी के विरूद्ध क्रॉस वोटिंग भी कर सकते है.
करीब तीन माह पूर्व 22 फरवरी को हरियाणा विधानसभा के बजट सत्र में प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस पार्टी द्वारा तत्कालीन भाजपा-जजपा गठबंधन सरकार के विरूद्ध लाए गए अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा उपरान्त सदन में मतदान नहीं हो पाया था
क्योंकि प्रस्ताव पर हुई चर्चा के अंत में जब मुख्यमंत्री मनोहर लाल उस पर बोल रहे थे, तो इसी बीच कांग्रेस पार्टी के सभी विधायकों ने सदन से वाक-आउट कर दिया अर्थात वो अविश्वास प्रस्ताव पर वोटिंग में हिस्सा लिए बगैर ही सदन से बाहर चले गये जिस कारण सदन में उपस्थित भाजपा, जजपा और उसके सहयोगी निर्दलीय एवं अन्य विधायकों द्वारा सर्वसम्मति से अविश्वास प्रस्ताव के विरोध में मत देने से अविश्वास प्रस्ताव गिर गया अर्थात ख़ारिज हो गया था.
बहरहाल, इस सबके बीच एक रोचक परन्तु महत्वपूर्ण प्रश्न यह उठता है कि क्या वास्तव में सदन में सरकार के विरूद्ध विपक्षी पार्टी या पार्टियों द्वारा लाए गए अविश्वास प्रस्ताव के सदन में गिरने या खारिज होने के 6 माह के अंतराल के बाद ही पुनः इसी प्रकार का अगला अविश्वास प्रस्ताव सदन में लाया जा सकता है. हरियाणा विधानसभा के स्पीकर ज्ञान चंद गुप्ता द्वारा भी ऐसा बयान जारी किया गया है.
इस विषय पर हेमंत ने बताया कि न तो हमारे देश भारत के संविधान में और न ही हरियाणा विधानसभा के प्रक्रिया एवं कार्य संचालन नियमावली में कहीं ऐसा उल्लेख है कि एक अविश्वास प्रस्ताव गिरने या खारिज के बाद दूसरा प्रस्ताव उससे छ: महीने के अंतराल के बाद ही सदन में लाया आ सकता है.
हालांकि विश्व के कई लोकतान्त्रिक देशों में इस प्रकार की संसदीय व्यवस्था है परन्तु हमारे देश के किसी विधि-विधान में लिखित तौर पर ऐसा नहीं है. देश की संसद के निचले सदन अर्थात लोकसभा के प्रक्रिया एवं कार्य संचालन बनाये गये नियमों में भी एक अविश्वास प्रस्ताव के ख़ारिज या गिरने के छ: महीने बाद ही ऐसा दूसरा प्रस्ताव लाने सम्बन्धी उल्लेख नहीं है.
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बहरहाल, हेमंत ने यह भी बताया कि वैसे भी अगर किसी सत्तारूढ़ सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव सदन में मतदान के बाद अथवा मतदान से पूर्व विपक्षी पार्टियों द्वारा वाक-आउट करने के फलस्वरूप गिर जाता है
अर्थात खारिज हो जाता है और जैसे उसके कुछ दिनों या कुछ सप्ताह या दो-तीन माह बाद उस सरकार में शामिल गठबंधन पार्टी के सभी या कुछ विधायक अथवा उस सरकार को समर्थन दे रहे निर्दलीय विधायक अगर उस गठबंधन सरकार से अपना समर्थन वापिस ले लेते हैं और उस सरकार से बाहर हो जाते हैं
जिससे सत्ताधारी दल अर्थात गठबंधन के अल्पमत में आने के पुख्ता आसार हो जाएँ, तो क्या वैसी परिस्थिति में उस अल्पमत सरकार को छ: माह का कार्यकाल मात्र इस आधार पर दिया जा सकता है कि उक्त अवधि के बाद ही उसके विरुद्ध ताज़ा अविश्वास प्रस्ताव आ सकता है, ऐसा करना असंवैधानिक ही नहीं बल्कि प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के भी विरुद्ध होगा.
हालांकि हेमंत का यह भी कहना है कि उक्त परिस्थिति में अगर सदन में स्पीकर ( जो सत्ताधारी पार्टी का ही होता है) छ: माह के अंतराल से पूर्व विपक्षी दलों के अविश्वास प्रस्ताव को संसदीय परंपराओं का हवाला देकर स्वीकार करने से इंकार कर दे, तो ऐसी परिस्थिति में कोई भी विपक्षी दल सर्वप्रथम प्रदेश के राज्यपाल से और अगर वह ऐसा करने से इनकार कर दे तो हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप से उस अल्पमत सरकार को सदन में फ्लोर टेस्ट मार्फत विश्वास मत (ट्रस्ट वोट) हासिल करने का निर्देश देने को कह सकते हैं. मौजूदा परिस्थितियों में विपक्षी कांग्रेस और/या जजपा अथवा एक-सदस्यी इनेलो पार्टी भी ऐसा कर सकती है.