पिता ने बस का किराया बचाकर बेटे को बनाया पहलवान, आज बेटे के नाम का दुनिया में बजता है डंका

 
पिता ने बस का किराया बचाकर बेटे को बनाया पहलवान, आज बेटे के नाम का दुनिया में बजता है डंका
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झज्जर।एक कहावत तो आपने सुनी ही होगी, ‘हार कर जीतने वाले को बाजीगर कहते हैं’। अक्सर सुनने में आता है कि ज्यादातर खिलाड़ी अपनी हार को पचा नहीं पाते और मैदान छोड़कर भाग जाते हैं. जबकि हारने के बाद पहले से भी ज्यादा परिश्रम करने वाले ही एक दिन आकाश में चमकते हैं. वहीं असली योद्धा कहलाते हैं और एक दिन देश- दुनिया में देश, प्रदेश व माता-पिता का नाम रोशन करते हैं।

ऐसे ही एक योद्धा का नाम है बजरंग पूनिया , जिन्होंने अपने पहले ही मुकाबले में हार का मुंह देखा लेकिन बजरंग न तो अपनी हार से मायूस हुएं और न ही घबराकर मैदान छोड़कर भागे। उन्होंने पहले से भी अधिक परिश्रम किया और निष्ठा व कठोर तपस्या के बल पर आज उस मुकाम पर पहुंच गए हैं जिसे पाने की हसरत हर किसी के दिल में होती है।

पिता ने बस का किराया बचाकर बेटे को बनाया पहलवान, आज बेटे के नाम का दुनिया में बजता है डंका

हरियाणा के झज्जर जिले के रहने वाले बजरंग पूनिया को वर्ष 2013 एशियन गेम्स में पहली बार हार का मुंह देखना पड़ा था।परंतु अखाड़े की हार को उन्होंने जिंदगी की हार नहीं समझा. अपनी इसी हार को हथियार बनाकर बजरंग दिन-रात कड़ी मेहनत करने लगे।

उन्होंने अखाड़े में पहले से ज्यादा पसीना बहाना शुरू कर दिया। इसी मेहनत का नतीजा है कि वह लगातार मैडल जीतने वाली मशीन बन गए। बजरंग ने अपने अथक प्रयासों से वो मुकाम हासिल किया जिसके बाद ना उन्होंने केवल अपने देश का डंका पूरी दुनिया में बजवाया , बल्कि अपने प्रदेश हरियाणा व अपने परिवार का नाम भी रोशन किया।

पिता ने बस का किराया बचाकर बेटे को बनाया पहलवान, आज बेटे के नाम का दुनिया में बजता है डंका

विरासत में मिली पहलवानी
बजरंग को पहलवानी विरासत में मिली थी। जिस दिन लोग देश भर में गणतंत्र दिवस समारोह का जश्न मना रहे थे , ठीक उसी तारीख यानी कि 26 जनवरी 1994 को देश के भावी पहलवान बजरंग पूनिया ने अपनी मां की कोख से जन्म लिया था. पिता पहलवान थे तो बजरंग को भी सात वर्ष की उम्र में ही कुश्ती के दांव-पेचों से रुबरु करवा दिया।

हालांकि बजरंग के परिवार के आर्थिक हालात इतने अच्छे नहीं थे। इसके बावजूद भी पिता बलवान सिंह अपने बेटे के सपनों को पूरा करने के लिए खूब संघर्ष करते थे। पिता का सपना था कि बेटा बड़ा पहलवान बनें, इसलिए वह बस में आने-जाने की बजाय साइकिल की सवारी करते थे ताकि किराए से बचें हुए पैसे अपने बेटे की पहलवानी पर खर्च कर सकें।

पिता के सपनों को लगें पंख
पिता के सपनों को भी पंख लगें जब बजरंग ने एशियन गेम्स में पहला स्वर्ण पदक जीता। इस मैच में बजरंग ने अपनी पूरी जी-जान लगाकर बाजी जीतते हुए अपने पिता का सपना साकार किया। बजरंग पूनिया ने अपना पहला स्वर्ण पदक देश के पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपई को समर्पित किया। बजरंग पहलवानी के साथ-साथ शिक्षा के क्षेत्र में भी अव्वल थे।

बजरंग ने दक्षिण कोरिया, हंगरी, स्कॉटलैंड और नई दिल्ली में आयोजित हुई अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में खूब पदक जीते हैंं। बजरंग के नाम अब तक 5 गोल्ड,3 ब्रॉन्ज और 4 सिल्वर मेडल दर्ज है। दुनिया भर में भारत का डंका बजा चुके बजरंग पूनिया को राजीव गांधी खेल रत्न एवं अर्जुन अवॉर्ड से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रदेश ही नहीं अपितु देश के हजारों युवा बजरंग पूनिया की तरह पहलवान बनकर देश व प्रदेश का नाम रोशन करना चाहते हैंं।