Karwa Chouth Story: कौन हैं करवा माता, कैसे इस त्योहार का नाम पड़ा करवा चौथ, आईये जानें
अखंड सौभाग्य और पति की लंबी उम्र की कामना के लिए महिलाएं करवा चौथ का व्रत रखती हैं। इस बार यह शुभ तिथि 13 अक्टूबर दिन गुरुवार को है। यह पर्व हर वर्ष कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि को रखा जाता है। इस दिन महिलाएं पूरे दिन निर्जला व्रत रखती हैं और सोलह श्रृंगार करके शिव, पार्वती, करवा माता, गणेश और चंद्रमा की पूजा करती हैं।
इस दिन महिलाएं व्रत के सभी नियमों का पालन करती हैं और करवा माता से पति और परिवार की तरक्की का कामना करती हैं। लेकिन कभी आपने सोचा है कि आखिर करवा माता कौन हैं और इस त्योहार का नाम करवा चौथ कैसा पड़ा। आइए जानते हैं करवा माता के बारे में....
पौराणिक कथा के अनुसार, प्राचीन समय में करवा नाम की एक पतिव्रता स्त्री रहती थी और उनका पति काफी उम्रदराज था। एक दिन जब उनका पति स्नान के लिए नदी में गए तो वहां नहाते समय मगरमच्छ ने पैर पकड़ लिया और गहरे पानी की तरफ खींचने लगा। करवा के पति करवा को बुलाने लगे और सहायता करने को कहा।
पतिव्रता स्त्री होने के कारण करवा में सतीत्व का काफी बल था। करवा भागकर आई और सूती साड़ी से धागा निकालकर अपने तपोबल के माध्यम से मगरमच्छ को बांध दिया। सूत के धागे से बांधकर करवा मगरमच्छ को लेकर यमराज के पास पहुंची। यमराज ने कहा कि हे देवी, आप यहां क्या कर रही हैं और क्या चाहती हैं।
करवा ने कहा कि इस मगरमच्छ ने मेरे पति के पैर पकड़ लिया था इसलिए आप इसको मृत्युदंड दें और नरक में ले जाएं। यमराज ने कहा कि अभी मगर की आयु शेष है इसलिए समय से पहले मृत्यु नहीं दे सकते। करवा ने कहा कि अगर आप मगरमच्छ को मृत्युदंड देकर मेरे पति को चिरायु का वरदान नहीं देंगे तो मैं अपने तपोबल के माध्यम से आपको नष्ट कर दूंगी। करवा की बात सुनकर यमराज और चित्रगुप्त चौंक गए और सोच में पड़ गए कि आखिर क्या किया जाए। तब यमराज ने मगर को यमलोक भेज दिया और करवा के पति को चिरायु का आशीर्वाद दिया।
चित्रगुप्त ने भी करवा को सुख-समृद्धि का आशीर्वाद दिया और कहा कि तुमने अपने पति के प्राणों की रक्षा की है, उससे मैं बेहद प्रसन्न हूं। मैं वरदान देता हूं कि आज की तिथि के दिन जो महिला आस्था और विश्वास के साथ तुम्हारा व्रत करेगी, उसके सौभाग्य की रक्षा मैं स्वयं करूंगा।
उस दिन कार्तिक मास की चतुर्थी तिथि थी। जिससे करवा और चौथ के मिलने से इस व्रत का नाम करवा चौथ पड़ा। इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण के कहने पर पांडवों की पत्नी द्रौपदी ने इस व्रत को किया था, जिसका उल्लेख वराह पुराण में मिलता है।
करवा चौथ की कथा
एक साहूकार के सात लड़के और एक लड़की थी। सातों भाई अपनी बहन से बहुत प्रेम करते थे और एक साथ बैठकर खाना खाते थे। बहन की शादी के बाद पहली बार करवा चौथ आया और उस वक्त अपने मायके थी। रात के समय जब साहूकार के सभी लड़के भोजन करने बैठे तो उन्होंने अपनी बहन से भी भोजन करने को कहा।
बहन ने कहा कि आज करवा चौथ का व्रत है, चांद को अर्घ्य देकर ही भोजन करूंगी। बहन को भूख से व्याकुल देख भाइयों ने नगर के बाहर एक पेड़ पर चढ़कर अग्नि जला दी और छलनी में से चांद दिखा दिया। भाइयों ने कहा कि देखो चांद निकल आया है, अब तुम अर्घ्य देकर खाना खालो।
साहूकार की बेटी ने अपनी भाभियों से कहा, देखो चांद निकल आया है, तुम लोग भी अर्घ्य देकर भोजन कर लो। ननद की बात सुनकर भाभियों ने कहा कि अभी चांद नहीं निकला है, तुम्हारे भाइयों ने अग्नि जलाकर उसके प्रकाश को चांद के रूप में तुमको दिखा रहे हैं। साहुकार की बेटी ने भाभियों की बात नहीं सुनी और अर्घ्य देकर भोजन करना शुरू कर दिया। पहला टुकड़ा तोड़ा तो उसमें बाल निकल आया, दूसरे पर छींक आ गई और तीसरा टुकड़ा जैसे ही तोड़ा तो ससुराल से पति की मृत्यु की खबर प्राप्त होती है।
पति की मृत्यु खबर सुनकर वह रोने लगी और फिर भाभियों ने पूरी घटना के बारे में बताया और कहा कि ऐसा करने से करवा माता और चंद्र देवता नाराज हो गए हैं। इस बात को सुनकर साहूकार की बेटी प्रण लिया कि वह अपने पति का अंतिम संस्कार नहीं करने देगी और अपने पति के प्राण वापस लाकर रहेगी। एक साल बाद करवा चौथ आता है और वह फिर भाभियों के साथ व्रत का संकल्प लेती है और पूरे विधि विधान के साथ भगवान गणेश और करवा माता की पूजा करती है। इसके बाद उसका श्रीगणेश करते हुए जीवित हो उठता है।